इस शब्द को समझना ही हमें प्रति पल उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करता है I अगर गौर से समझा जाये तो जीवन एक यात्रा है जो जन्म से शुरू होकर मृत्यु को प्राप्त होती है I इस संद्धर्भ में हमसे बड़ी भूल हो जाती है की हम इसका अर्थ ढूंढने लगते है I जिस शब्द को पूर्णतया परिभाषित करना कठिन है उसका हम अर्थ कैसे ढूंढ सकते हैं I अतः होना यह चाहिए की हम इसके कोमलता, सहजता और प्रेमपूर्ण आलिंगन को समझने का प्रयास करें I
अक्सर मानव स्वभाव के वशीभूत होकर हम सुख-दुःख, सम्मान-अपमान जैसे भावदशाओं के चक्कर में जीवन के अथाह आनंद को नहीं समझ पाते हैं और हमारा मन और हृदय दोनों अस्थिर रहता है I जीवन जब एक यात्रा है तो इसमें हमें आनंद को प्राप्त करने के प्रति प्रवृत होना चाहिए I
जब कभी भी हम एक श्रेष्ठ जीवन की और आकृष्ट होते हैं तो हमें स्वयं में ही अनेक चिरकालिक समन्वय दिखाई देने लगते है I सबसे पहला समन्वय हमारे मन, वचन और कर्म में होता है I हम इन तीनों के प्रति अत्यधिक जागरूक होने लगते हैं और इन तीनों आयामों के प्रति पूर्ण चेतना और जागरूकता का रखा जाना ही तो जीवन हैI जिस क्षण आप अपना जीवन जीना शुरू करते हैं उसी क्षण से आप अपना सामना बेहतर तरीके से कर सकते हैं I
सामान्य तौर पर हम अपने जीवन को स्वतंत्रता की और ले जाने के बजाये समय, तन, लोग, परिस्थितियों, अपूर्ण इच्छाओं, हमारे अंतरतम में जन्म लेनेवाली विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं व भावनाओं का दास बना लेते हैं I अंतहीन विचार, मिथ्याबोध हमारे जीवन को अनुपयुक्त अथवा अवांछनीय बना देते हैं I
अतः सर्वप्रथम अपने जीवन को मनसा वाचा कर्मणा के सामंजस्य पर आगे बढाएं क्योंकि ऐसा किया जाना हमें सत्यता के मार्ग पर अग्रसर करेगा I परिस्थितियां कितनी भी जटिल हों अपने वास्तविक स्व का बलिदान मत दीजिए I आजीवन हम प्रसन्नता, सफलता, शांति, और प्रचुरता प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहते हैं लेकिन प्रायः हमें इनकी प्राप्ति में निराशा हाथ लगती है, जबकि हमारे वास्तविक स्व की खोज हमें कष्ट और आघातों से मुक्ति दिलाती है I
अक्सर मानव स्वभाव के वशीभूत होकर हम सुख-दुःख, सम्मान-अपमान जैसे भावदशाओं के चक्कर में जीवन के अथाह आनंद को नहीं समझ पाते हैं और हमारा मन और हृदय दोनों अस्थिर रहता है I जीवन जब एक यात्रा है तो इसमें हमें आनंद को प्राप्त करने के प्रति प्रवृत होना चाहिए I
जब कभी भी हम एक श्रेष्ठ जीवन की और आकृष्ट होते हैं तो हमें स्वयं में ही अनेक चिरकालिक समन्वय दिखाई देने लगते है I सबसे पहला समन्वय हमारे मन, वचन और कर्म में होता है I हम इन तीनों के प्रति अत्यधिक जागरूक होने लगते हैं और इन तीनों आयामों के प्रति पूर्ण चेतना और जागरूकता का रखा जाना ही तो जीवन हैI जिस क्षण आप अपना जीवन जीना शुरू करते हैं उसी क्षण से आप अपना सामना बेहतर तरीके से कर सकते हैं I
सामान्य तौर पर हम अपने जीवन को स्वतंत्रता की और ले जाने के बजाये समय, तन, लोग, परिस्थितियों, अपूर्ण इच्छाओं, हमारे अंतरतम में जन्म लेनेवाली विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं व भावनाओं का दास बना लेते हैं I अंतहीन विचार, मिथ्याबोध हमारे जीवन को अनुपयुक्त अथवा अवांछनीय बना देते हैं I
अतः सर्वप्रथम अपने जीवन को मनसा वाचा कर्मणा के सामंजस्य पर आगे बढाएं क्योंकि ऐसा किया जाना हमें सत्यता के मार्ग पर अग्रसर करेगा I परिस्थितियां कितनी भी जटिल हों अपने वास्तविक स्व का बलिदान मत दीजिए I आजीवन हम प्रसन्नता, सफलता, शांति, और प्रचुरता प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहते हैं लेकिन प्रायः हमें इनकी प्राप्ति में निराशा हाथ लगती है, जबकि हमारे वास्तविक स्व की खोज हमें कष्ट और आघातों से मुक्ति दिलाती है I
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